मेरी दादी स्व. श्रीमती गीतादेवी की आज पुण्यतिथि है ।मैं उनके और वो मेरे बहुत करीब रही , इस रिश्ते को शब्दों में बांधना संभव नहीं है , फिर भी मैंने कोशिश की है ।
बई को गए आज 25 बरस हो गए । मालवा में माता-पिता को बई -बाउजी कह कर संबोधित किया जाता है । हम बच्चों ने देखा कि घर में सभी बई बुलाते हैं तो वे हमारी भी बई हो गई । चार बेटों के भरे-पूरे परिवार को संभालते देखते उनका पूरा जीवन बिता । उनकी कोइबेटी नहीं थी , अपनी एक बेटी को वो बहुत कम उम्र में खो चुकी थी । मैं उनके और परिवार के लिए इसलिए बहुत खास बन गई , उनके सबसे लाड़ले बेटे की पहली संतान और वो भी बेटी । मैं उनके लिए असल से प्यारा सूद थी । उन्होंने मुझे रखा भी वैसे ही । बहुत छोटी थी लेकिन गांव की स्मृतियाँ अभी भी ताज़ा है । स्कूल शुरू होने तक और उसके बाद भी मैंने बहुत समय बई -दायजी के साथ हमारे पैतृक गांव नागुखेड़ी में बिताया । उस घर का नक्शा मैं आज भी बना सकती हूँ । जिस आंगन में खेलते-कूदते आपने बचपन बिताया हो वो आप कैसे भूल सकते हैं ।
बई इतनी उम्र में भी मेरे लिए मेरी पसंद के सारे व्यंजन बनाती । उनके हाथ के बनाये हुए रेलमें (मीठा चीला) के स्वाद मुझे आज भी याद आता है। मीठे की शौकीन में बचपन से हूँ । चीका, गाय के पहले ढूध से बनाई जाने वाली एक खास मिठाई होती है । बई मेरे लिए हमेशा बनाती थीं । आज चीका खाये न जाने कितने बरस हो गए । गाँव के उस घर और उन गलियों को आज भी याद करते हुए एक सुकून मिलता है ।
जैसे जैसे मैं बड़ी होती गई मेरा और उनका रिश्ता और गहरा होता गया । जब पापा और हम देवास आये वे हमारे साथ आई थी और अपने आखिरी समय तक हमारे साथ रहीं । उनके पास मेरे लिए ढेरों कहानियां होती थीं । किताबों वाली कहानी नहीं , उनके पुराने दिनों की कहानी । पापा और बाकी काका लोगों के बचपन के किस्से सुनने में मुझे बड़ा मजा आता था। मुझे वो अपने गांव के क़िस्से सुनाती , कितनी कम उम्र में ब्याह कर यहां आई । कितना बड़ा परिवार था। खेत, गाय,बैल भैंस ,बछड़ा सब कुछ था। सबकी जिम्मेदारी उन पर थीं ।दादाजी प्रख्यात पंडित थे , घर पर आने जाने वाले का तांता लगा रहता था । वो कहती थीं चाय की तपेली (पतीली) चूल्हें से नहीं उतरती और जब वो हाथ के ईशारे से थप्पी कर बताती की मैं रोज़ इतनी इतनी रोटियां बनाती तो मुझे अचरज होता । खेत माल में काम करने वाले लोगों की कहानियां ,अपनी ननद-भौजाई की और बड़े होने पर बेटे-बहुओं के किस्से भी उन्होंने मुझे सुनाए । शहर में बड़ी होती हुई में वो कहानियां बड़े ध्यान और रूचि से सुनती । मुझे लगता शायद अलग ही दुनिया रही होगी , चूल्हे पर खाना बनाना, कुएं से पानी लाना, गाय-बैल बछड़ो की देख- रेख के साथ घर की बाकी सारी जिम्मेदारी निभाना , मुझे बई पर गर्व होता कि वो इतना सब कुछ करती थीं ।
उन्होंने अपने जीवन -काल में वो सब बदलते देखा । बहुत कुछ खोया और पाया भी ।सभी बेटे एक एक कर शहर आ गए । ज़मीन कौड़ियों के भाव बिक गई, खेत-खलिहान गाय बैल सब खत्म हो गया । लेकिन मैंने उन्हें कभी हताश निराश नहीं देखा । उन्हें कभी किसी से कोई शिकायत नहीं रही , उनके नाम के अनुरूप ही वे कर्मण्ए वाधिकारस्ते का पालन करते हुए जीवन जीती रहीं । हमें भी यही सिखाती रहीं की जो खो गया है उस पर आंसू बहाने से बेहतर है आगे की सोचो । पूरी मेहनत और ईमानदारी से अपने कर्तव्य पथ पर चलते रहो ।
दस पोते-पोतियों के भरे पूरे परिवार में वो खुश थी । उन्हें तस्सली थी कि चारों बेटे अपने परिवारों के साथ राज़ी खुशी हैं । वो हमेशा कहती अब और क्या चाहिए , उनकी जीवन तपस्या सफल हो गई थी । हम सब भाई-बहनों की उन्हें बहुत चिंता रहती । वो बारी से बारी से सबकी खबर लेती । बहुओं को उन्होंने बेटियों की तरह रखा । वो एक सूत्र थी जिनके सहारे हम सब बंधे हुए थे ।
मेरी शादी के उन्हें बड़े अरमान थे । मेरे बारहवीं पास करते ही वो पापा से कहने लगी थीं ‘हूँ जऊँ उका पेला ब्याव कर दे’ । मतलब मेरे परलोक सिधारने से पहले इसकी शादी कर दो । मैंने बारहवीं के बाद जब इंदौर में कॉलेज शुरू किया उन्हें मेरी और चिंता होने लगी थीं । जब तक मैं घर लौट कर नहीं आती वो बैचैन रहती । इस तरह दूसरे शहर जाकर पढ़ने वाली मैं परिवार की पहली लड़की थी । मुझे याद है एक दिन मुझे आते आते आठ बजे गए थे वो नीचे पुलिया पर बैठे मेरा इंतजार कर रहीं थीं । मेरी ही नहीं हम सभी आठों बहनों की हर उपलब्धि पर वो बहुत खुश होती । उन्होंने कभी अपने बेटों से नहीं कहा कि बेटियों को मत पढ़ाओ । उन्होंने हमें हमेशा प्रोत्सहित किया , आगे बढ़ाया । ढेरों आर्शीवाद दिए जो आज तक फल रहे हैं ।
उच्च रक्तचाप (BP) की परेशानी उन्हें कईं बरसों से थी और मैं खुद नियम से उन्हें दवाई देती रही । लेकिन आखिर एक दिन BP की वजह से उन्हें ब्रेन हेमरेज हुआ और हमारे सभी प्रयासों के बावजूद, वो हमें छोड़कर चली गईं । मैं अपने कॉलेज के पहले वर्ष में ही थी । मृत्यु का मतलब तब तक समझ आ गया था लेकिन इस दुःख से जीवन के उस मोड़ पर आमना सामना पहली बार हुआ था । मेरे लिए ये स्वीकार करना ही बहुत मुश्किल हो रहा था कि मैं जब कॉलेज से घर पहुंचूंगी तो मेरा इंतजार करते हुए बई नहीं होंगे । कुछ समय बाद मैं इंदौर के होस्टल में शिफ्ट हो गई , बई कि यादों से दूर ।
बई के आशीर्वाद से जीवन में वो सब कुछ मिला जिसके ढेरों आशीर्वाद उन्होंने हमें दिए । हम सभी दसों भाई -बहन आज अपने अपने क्षेत्रों बहुत अच्छा कर रहे हैं ।
लेकिन बई की कमी हर जगह महसूस हुई । जिस दिन अमेरिका की फ्लाइट पकड़ी , सोचती रही कि वो होती तो कितनी खुश होती ।जिस दिन शादी के जोड़े में घर से विदा हुई , यही ख्याल आया कि आज बई होती तो सबसे ज्यादा खुश और दुखी वहीं होती । जिस दिन भगवान ने झोली में छोटी से गुड़िया को डाला तो ख्याल आया काश बई इसकी एक झलक देख पाती । लेकिन शायद जीवन ऐसा ही होता है, जिनसे हमारा अटूट रिश्ता होता है वो भी हमें एक दिन छोड़कर चले जाते हैं ।
हमारे जीवन में मेहनत और किस्मत से भी ज्यादा अगर किसी चीज़ का हाथ रहता है तो वो है हमारे बुजुर्गों का आशीर्वाद । मेरा इस बात में बहुत गहरा यकीन है कि बई का हाथ मेरे सिर पर हमेशा रहा है । मेरे ही नहीं पूरे परिवार को उनका आशीर्वाद मिला है और ईश्वर से प्रार्थना है कि उनके दिखाई राह पर यूं ही चलते रहें व उनका आशीर्वाद यूं ही बना रहे ।
अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजलि । ॐ शांति ।
ममता पंडित