दृश्य 1 –  रेल का वातानुकूलित कोच, सभी सुख सुविधाओं से लैस, किसी ज़माने में यात्रियों के ठहाकों और बहस से गुंजायमान रहने वाले इस कोच में एक खामोशी पसरी है, बस वही कुछ लोग आपस में बात कर रहे हैं जो चार्जिंग पॉइंट के  खाली होने के इंतज़ार में हैं..सब कुछ वही है लेकिन वो कहीं नही दिखाई दे रही।

दृश्य 2 – आज मीरा का 40 वां जन्मदिन है, एक पूरा कमरा तोहफों से भरा है…एक से बढ़कर एक महंगे और नायाब तोहफे, लेकिन मीरा की निगाहें जाने क्या ढूंढ रही हैं..और अंत में वह निराश होकर बैठ गई…उन नायाब तोहफों में  उसे वो कहीं नहीं मिली ।

दृश्य 3 –  पार्क में शाम के वक़्त बच्चों का अच्छा जमावड़ा रहता है यहां आकर इन इनकी बातें सुनने में शर्मा जी को बड़ा मज़ा आता है। खिलौनों, स्कूल,मम्मी -पापा की लड़ाई मासूमियत के साथ सबकुछ बता देते हैं बच्चे अपने दोस्तों को…….इन्हीं बातों का आनंद लेते हुए शर्मा जी हैरान है की इतनी सारी बातों के बीच वो कहीं नहीं है।

इन सभी दृश्यों में एक ही चीज़… जो कल हुआ करती थी और आज नही है . वो हैं…  किताबें। आज से कुछ वर्ष पहले का रेल का सफर याद कीजिये आपको हर तीसरे यात्री के हाथ में कोई किताब नज़र आती थी। अपने किसी खास के जन्मदिन पर भेंट देने के लिए उसकी पसंदीदा पुस्तक हमारा पहला विकल्प होती थी…..आजकल तो  लिफाफों के दौर ने तोहफ़ों की परिभाषा ही बदल दी है और बच्चों के मुँह से किताबों का  नाम सुने तो जैसे अरसा बीत गया।  हमारे पास बाल पत्रिकाएं होती थीं, जिनकी कविताएं, कहानियां हमारी बातों का अहम हिस्सा होती थी। चिंता का विषय है की हमारी आने वाली पीढ़ी की सोच और विचारों  से किताबें गायब हैं। अपनी पाठ्यपुस्तकों के अलावा वे और कौन सी किताबें पढ़ पाते है??
मनुष्य ने हर दौर में प्रगति की है, अपनी जीवन यापन के  संसाधन जुटाने के बाद उसने अपने जीवन को आसान से आसान बनाने की तकनीक दिन ब दिन विकसित की। लेकिन विकास की इस दौड़ में अगर हमने बहुत पाया है तो बहुत कुछ खोया भी है। आज सब कुछ दृश्य-श्रृव्य (audio-visual)माध्यम में उपलब्ध है। हमें सिनेमा, टीवी , कंप्यूटर ,मोबाइल पर सब कुछ दिखाई और सुनाई देता है। हम कुछ पढ़ना नहीं चाहते। आप किसी भी पुस्तकों के जानकार  से पूछिये की उन्हें किसी किताब पर बनी हुई कोई फ़िल्म या नाटक अच्छा लगा या उस कहानी को पढ़ते हुए उसे महसूस करना, और उनका जवाब हमेशा यही होता है की पुस्तक ज्यादा अच्छी है ।
किसी किताबों को पढ़ते हुए आप अपने जहन में किरदारों के चेहरे गढ़ते हो, उन्हें अपने पसंदीदा रंग पहनाते हो,  कुछ अनकहा सा समझने की कोशिश भी करते हो जो लेखक ने आपके लिए छोड़ दिया है। इसलिए एक ही किताब को पढ़ने का अनुभव भी सबका भिन्न होता है…अपने अपने व्यक्तित्व के अनुसार। दृश्य-श्र्वय माध्यम में आपको तैयार खाना परोसा जा रहा है , निर्देशक की पसन्द के अनुसार। आपकी पसंद और नापसंद से उनका कोई सरोकार नही है। आपके पास सोचने समझने को कुछ बाकी नही रह जाता…आपकी समझ उस निर्देशक की समझ तक सीमित हो जाती है। उससे आगे आप चिंतन की ज़हमत भी नहीं उठाते। कुछ कलाकार, फिल्मकार बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं लेकिन फिर भी वो आपको एक जुनून की तरह किताब में डूबने का और किसी भी  कीमत पर जल्दी से जल्दी उसके आखिरी पृष्ठ तक पहुँचने कि उत्सुकतावाला एहसास नहीं दे सकते। ई -बुक  किताब के पृष्ठों को पलटने वाला और किंडल किताबों को हाथों से महसूस करने वाला एहसास नहीं दे सकते। वो आपको शब्द पर उंगली रख  उसका अर्थ जरूर बता सकते हैं पर दिमाग पर जोर डालकर उसी शब्द का अपने व्यक्तित्व के हिसाब से अर्थ निकालने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर सकते । 

मानव सभ्यता का  पूरा सफर पुस्तकों में दर्ज  है । सदियों से हर सभ्यता , हर भाषा में कुछ न कुछ लिखा गया है और कुछ वर्षों पहले तक पढ़ा भी जा रहा था। लेकिन आजकल किताबों पर जमीं धूल कि परत मोटी होती जा रही है और हमारी कल्पना की उड़ान छोटी। हालात ये है की आजकल पुस्तकालयों में भी लोग अपने मोबाइल फ़ोन में डूबे हुए देखे जा सकते हैं। प्रगति के नए सोपान चढ़ते हुए हम अपने गौरवशाली सभ्यता के इतिहास से दूर होते जा रहे हैं।कुछ ही महीनों में हर तकनीक का नया विकल्प आ जाता  है किंतु एक बार लिखा हुआ कभी मिटाया नही जा सकता..सदियों पहले लिखा हुआ भी आज उतना ही प्रासंगिक है । किताबें आज और कल को जोड़ने वाली महत्वपूर्ण कड़ी है। 
जरूरत है कि हम इस धरोहर की तरफ, किताबों को तरफ लौटने की । ….. आईये फिर शुरू करें किताबें तोहफ़ों में देने की परंपरा, रेल के सफ़र पर साथ ले चलें कुछ पढ़ने को, आइए नई पीढ़ी को नई किताबों से आने वाली खुशबू से परिचित कराएं । उन्हें बताएं कि वे पढ़े , डूबे किताबें के सागर में और चुन लाएं ज्ञान के मोती । 

ममता पंडित