डोर और पतंग


अस्तित्व हीन सी डोर ,
साथ पतंग के महत्वपूर्ण हो जाती है
बेमानी सी पतंग,
साथ डोर के नई ऊंचाइयां छू जाती है..

उड़ान पतंग की महत्वाकांक्षा है,
तो फिर डोर क्या है..
सीढ़ी, साधन या सहारा
जो भी है
बिन इस के मुश्किल है
पतंग का गुज़ारा…

और अकेली डोर की भी,
तो कोई कहानी नहीं,
इनके अद्भुत बंधन का
कोई सानी ही नहीं…

कुछ पल के साथ कि अद्वितीय उड़ान..
कटते ही डोर के, खत्म होती पहचान

पतंग फिर कोई नई डोर ढूंढेगी
और डोर कोई नया ठोर ढूंढेगी…

फिर जुदा हो दोनों, 
नापेंगे नया आकाश…
क्या मिलेंगे फिर कहीं
लिए अधूरी आस..
उड़ते -उड़ते ,कटते लूटते
अब हो गई हताश…
न जाने किस डोर को,
पतंग रही तलाश ।

ममता पंडित